आज की इस वीडियो में मैं एक गहरा और सच्चा अनुभव साझा कर रहा हूँ,
जो मुझे रोज़ मंदिर जाते समय मिला।
वहाँ बैठा एक युवा, जिसकी टांग में थोड़ी कमी है,
लोगों से पैसे माँगकर अपना जीवन चला रहा है—
लेकिन असली समस्या उसकी टांग नहीं,
उसका mindset है।
इस घटना ने मुझे यह समझाया कि—
शारीरिक कमी इंसान को नहीं रोकती
लेकिन मानसिक हार पूरी ज़िंदगी रोक देती है
Dependency एक मीठा ज़हर है जो धीरे-धीरे इंसान को hollow कर देता है
जब सोच “मैं नहीं कर सकता” बन जाए,
तो शरीर 100% ठीक होकर भी आगे नहीं बढ़ता
असली अपंगता पैरों की नहीं, मन की होती है
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कल शाम मैं हमेशा की तरह मंदिर गया था।
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मेरी यह आदत सालों से है। मंदिर में जाते
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ही मन शांत हो जाता है। वहां की शांति,
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घंटियों की आवाज, अगरबत्ती की खुशबू सब
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कुछ मन को एक अलग ही दुनिया में ले जाता
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है। लेकिन कल मेरी नजर उस शांति के बीच एक
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ऐसे इंसान पर पड़ी जिसके चेहरे पर बेचैनी,
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टूटन और हार स्पष्ट दिखाई दे रही थी।
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मंदिर के मुख्य द्वार के बाई तरफ एक युवक
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रोज बैठता है। उसकी एक टांग में हल्की सी
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कमी है। चल तो सकता है लेकिन थोड़े दर्द
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और थोड़ी दिक्कत के साथ। उसकी उम्र 25 से
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30 के बीच होगी। चेहरा जवान है। शरीर भी
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ठीक-ठाक लेकिन आंखों में उम्मीद का एक भी
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खतरा नहीं। वह वहीं बैठकर लोगों के सामने
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हाथ फैलाता है। कुछ लोग सिक्के डाल देते
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हैं। कुछ नोट दे देते हैं और कुछ लोग बस
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आगे बढ़ जाते हैं।
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पर वह हर आने वाले से वही उम्मीद रखता है।
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शायद यह कुछ दे दे। शायद यह मेरी मदद कर
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दे। मैं रोज उसे देखता हूं। लेकिन कल पता
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नहीं क्यों। मेरे मन में उसके लिए एक अलग
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ही सोच पैदा हुई। मैंने उसे ध्यान से
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देखा। वह मुश्किल से 30 का होगा। इतनी कम
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उम्र में तो लोग जिंदगी की नीव खड़ी कर
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रहे होते हैं। करियर बना रहे होते हैं।
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अपने सपनों के पीछे भाग रहे होते हैं।
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लेकिन यह युवक एक मंदिर की सीढ़ी पर बैठा
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जिंदगी से हार मान चुका था। और वह भी
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इसलिए नहीं कि उसका शरीर पूरी तरह जवाब दे
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चुका था। बल्कि इसलिए क्योंकि उसके मन
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पहले ही हार चुका था। मैंने सोचा क्या सच
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में इस युवक की हालत इतनी खराब है कि वह
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कोई काम नहीं कर सकता? उत्तर साफ था।
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नहीं। हां उसकी टांग थोड़ी कमजोर है लेकिन
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हाथ ठीक है। आवाज ठीक है। दिमाग बिल्कुल
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ठीक है। उम्र युवा है। ऊर्जा है। सोचने की
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क्षमता है। हालत ने उसका शरीर थोड़ा कमजोर
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किया है। लेकिन उसने अपने मन को पूरी तरह
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अपंग घोषित कर दिया है। और यह बात मेरे
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अंदर तक जगझोर गई। हम अक्सर बीमारी को
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सिर्फ शरीर तक सीमित समझते हैं। पैर में
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प्रॉब्लम है इसीलिए वह बेबस है। लेकिन असल
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विभेब पैर में नहीं होती। बेबस वह होता है
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जिसने अपने मन को कमजोर मान लिया हो।
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मैंने सोचा इस युवक की समस्या टांग की
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नहीं उसकी मानसिक स्थिति की है। टांग में
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दिक्कत होने से उसने खुद को जिंदगी भर का
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भिखारी मान लिया है। और यह हम इंसानों की
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सबसे बड़ी गलती होती है। जब छोटी सी
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फिजिकल कमी को हम अपनी पूरी आइडेंटिटी बना
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देते हैं। मैंने कई लोग देखे हैं जिनके
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पैरों में बिल्कुल भी ताकत नहीं। लेकिन मन
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में आग है। वे बैसाखियों पर खड़े होकर
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दुकान चलाते हैं, चप्पल बनाते हैं, कपड़े
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सीते हैं, ऑटो रिक्शा चलाते हैं, कॉल
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सेंटर में बैठते हैं। कुछ तो बिना पैरों
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के ऑफिस में रिसेप्शनिस्ट की जॉब कर रहे
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हैं। वे अपनी समस्या को अपनी सीमा नहीं
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बनने देते। वे दुनिया को बताते हैं कि
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इंसान की ताकत पैरों में नहीं इरादों में
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होती है। लेकिन यह युवक अपनी कमजोरी को
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अपने जीवन का वर्डिक्ट मानकर वहीं बैठा
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है। उसे शायद लगता है कि मैं कुछ कर नहीं
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सकता। मेरे पास विकल्प नहीं है। लोग मदद
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कर रहे हैं। बस यही काफी है। मैं ऐसे ही
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जी लूंगा और यह ऐसे ही जी लूंगा वाला
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विचार किसी भी रोग से ज्यादा खतरनाक है।
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इसी सोच ने उसके पैरों से ज्यादा उसके मन
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को अपंग बना दिया है। और सच कहूं उसी पल
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मेरे मन में एक बात आई। जिंदगी की असली
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बीमारी शरीर में नहीं मन में होती है। उसी
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मंदिर में मैंने कई बुजुर्ग लोगों को देखा
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है। उनकी पीठ झुकी हुई होती है। हाथ
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कांपते हैं। कदम धीमे-धीमे चलते हैं।
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लेकिन वे फिर भी रोज किसी काम में लगे
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रहते हैं। वे टेंपल कमेट के काम करते हैं।
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दान पेटी संभालते हैं। सफाई करते हैं। दो
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घंटे बैठकर पूजा पाठ करवाते हैं। उनका
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शरीर उनसे पूछता है। क्यों कर रहे हो यह
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सब? लेकिन उनका मन जवाब देता है क्योंकि
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यह जीवन मुझे कुछ करने के लिए दिया गया
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है। बेकार बैठने के लिए नहीं। और वहां
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बैठा वह युवक जिसके पास उम्र है, ताकत है,
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उम्मीद करने की क्षमता है, जीवन आगे
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बढ़ाने की पूरी शक्ति है, वह केवल एक
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मानसिक ब्लॉकेज के कारण अपने भविष्य को
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मंदिर की सीढ़ियों पर दफना रहा है। वह
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चैरिटी पर निर्भर है, लेकिन चैरिटी कभी भी
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किसी इंसान को ऊपर नहीं उठाती। वह सिर्फ
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उसकी डिपेंडेंसी बढ़ाती है। जैसे-जैसे वह
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चैरिटी लेता रहेगा, वैसे-वैसे उसका मन और
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भी कमजोर होता जाएगा। कुछ दिन बाद उसे
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लगेगा मैं तो काम लायक ही नहीं हूं। कुछ
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महीनों बाद मैं तो नौकरी कर ही नहीं सकता।
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और कुछ सालों बाद मैं तो पैदा ही इसी के
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लिए हुआ था। और इस तरह एक छोटी सी शारीरिक
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परेशानी इंसान की पूरी जिंदगी को परिभाषित
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कर देती है। अगर वह अपने मन को उसका बंधुआ
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बनाकर बिठा दे और यही दृश्य देखकर मेरे मन
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में एक बहुत बड़ी बात उभरी।
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जिस दिन इंसान ने सोचना छोड़ दिया कि वह
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कुछ कर सकता है, उस दिन उसकी जिंदगी रुक
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जाती है। लेकिन यह कहानी सिर्फ उस युवक की
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नहीं है। यह हम सबकी है। हां, हम सबकी
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क्योंकि हम में से लाखों लोग पूरी तरह
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स्वस्थ हैं। सही चल सकते हैं। काम कर सकते
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हैं। सोच सकते हैं। लेकिन फिर भी अपने मन
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में यह विश्वास बैठा लेते हैं कि मुझे कुछ
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नहीं आता। मेरे अंदर टैलेंट नहीं है। मुझे
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आईडिया मिल जाएगा तो शुरू करूंगा। मैं
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कैपेबल नहीं हूं। मैं हिम्मत नहीं कर
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सकता। बाहर का शरीर फिट है लेकिन अंदर का
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मन कमजोर है। इंसान बाहर से बुरा है लेकिन
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अंदर से टूटा हुआ है और टूटा हुआ मन अक्सर
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इंसान को ऐसा बनाए देता है जैसे वह बनना
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कभी नहीं चाहता था। और इसी थॉट से आज का
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यह पहला भाग खत्म करता हूं। क्योंकि आगे
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भाग टू में आपको बताऊंगा कि वास्तव में यह
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वक्त मेरे लिए कौन सी सबसे गहरी सीख छोड़
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गया और यह सीख आपकी जिंदगी के माइंडसेट को
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कैसे पूरी तरह बदल सकती है।
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मंदिर से घर लौटते समय भी उस युवक की छवि
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मेरे मन में बार-बार घूम रही थी। उसका
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बैठना, उसकी निगाहें, उसकी आदत और सबसे
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ज्यादा उसका सोचने का तरीका। मैं यह सोच
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रहा था कि वह शारीरिक रूप से इतना कमजोर
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नहीं है जितना कि वह मानसिक रूप से बन
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चुका है। उसने सिर्फ अपनी टांग के दर्द को
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नहीं माना। उसने उसे अपनी काबिलियत के
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खिलाफ फाइनल फैसला मान लिया है। और यही
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बात मेरे भीतर एक गहरा सवाल पैदा कर रही
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थी। क्या इंसान की दिक्कत शरीर की होती है
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या सोच की? क्योंकि मैंने जीवन में ऐसे
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लोगों को देखा है जिनकी स्थिति इससे 100
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गुना बुरी थी लेकिन उनका मन इससे 100 गुना
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मजबूत था और मैंने एक बात महसूस की
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शारीरिक कमी रास्ते रोकती है लेकिन मानसिक
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कमी इंसान को रोक देती है। एक इंसान जिसके
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पास हाथ नहीं है वह पैर से पेंटिंग सीख
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लेता है। एक इंसान जिसके पैर नहीं है वह
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ऊपरी शरीर से दुनिया का रिकॉर्ड बना देता
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है। एक इंसान व्हीलचेयर पर बैठकर पूरी
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कंपनी चला सकता है। फिर भी कई लोग जिनके
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शरीर में कोई दिक्कत नहीं। अपने मन को एक
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ही तरह की बातें बोलते रहते हैं। मैं नहीं
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कर सकता। मेरे बस का नहीं है। मुझे काम
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नहीं मिलेगा। कौन मुझ पर भरोसा करेगा? अगर
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असफल हुआ तो। और इन सवालों में छिपा छोटा
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सा डर धीरे-धीरे मानसिक लकवा बन जाता है।
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शरीर काम कर सकता है लेकिन मन उठने से मना
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कर देता है। और सच कहूं तो यही वह असली
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अपंगता है जिससे दुनिया का आधा दुख पैदा
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होता है।
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डिपेंडेंसी एक मीठा जहर है। जो युवक मंदिर
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में बैठा था, वह चैरिटी से चल रहा था।
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पहली नजर में यह आसान रास्ता लगता है। लोग
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पैसा दें आप एक्सेप्ट कर लो और दिन बीत
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जाए। लेकिन डिपेंडेंसी की एक भयानक खासियत
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होती है। शुरुआत में आसान लगती है, लेकिन
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धीरे-धीरे इंसान अंदर से फॉलो कर देती है।
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डिपेंडेंसी मन का साहस छीन लेती है।
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डिपेंडेंसी इनिशिएटिव मिटा देती है।
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डिपेंडेंसी कोशिश मार देती है और सबसे
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खतरनाक बात डिपेंडेंसी धीरे-धीरे इंसान को
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अपनी जिंदगी का दर्शक बना देती है। एक्टर
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नहीं। वह युवक दिन भर वहीं बैठता है। उसका
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जीवन उसी चौखट पर सीमित हो चुका है। ना
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दिन में बदलाव, ना सपनों में बदलाव, ना
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भविष्य में बदलाव। उसके जीवन की डायरेक्शन
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अब उसके अपने हाथ में नहीं दूसरे के के
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सिक्कों में है। और अब जीवन दूसरों की दया
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पर चलने लगे तो समझ लो कि मन ने अपनी
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शक्ति का त्याग कर दिया है। असली गरीबी
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शरीर की नहीं सोच की है। यह वाक्य मैंने
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पहले सुना था। लेकिन कल पहली बार इसका
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असली अर्थ समझ में आया क्योंकि अगर गरीबी
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सिर्फ पैरों में होती तो दुनिया के
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करोड़ों लोग कभी उठ ही नहीं पाते लेकिन वे
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उठते हैं सीखते हैं कमाते हैं जीते हैं
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बढ़ते हैं यह इसलिए नहीं कि उनके पास सब
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कुछ है बल्कि इसलिए कि उनके मन ने हार
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मानने से मना कर दिया है। मैंने किसी
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किताब में पढ़ा था पैरों से गिरे तो इंसान
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चलकर उठता है लेकिन सोच से गिरे तो इंसान
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को उठाने वाला भी कुछ नहीं कर सकता। उस
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युवक के पैरों में दिक्कत है लेकिन मन में
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गिरावट ज्यादा है और यही गिरावट उसकी पूरी
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जिंदगी रोक कर बैठी है। सॉलशंस हमेशा
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मौजूद होते हैं। बस मन बंद हो जाए तो
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दिखते नहीं। सच बताऊं तो उस युवक के लिए
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कई ऑप्शन है। सिंग जॉब, बिलिंग काउंटर,
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पैकिंग वर्क, फोन हैंडलिंग, शॉप
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असिस्टेंट, रिसेप्शन, स्मॉल बिजनेस,
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इंसेंस या पूजा आइटम इंसेंस स्टिक्स होती
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है अगरबत्ती या पूजा आइटम्स मंदिर के बाहर
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भेजना, टाइपिंग, लेबलिंग, डिलीवरी
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मैनेजमेंट। कोई भी काम जहां खड़े रहने की
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जरूरत कम हो, लेकिन उसे यह विकल्प दिखेंगे
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ही नहीं। क्योंकि उसका मन दो शब्दों पर
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टिका है। मैं नहीं कर सकता। मेरे पास
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विकल्प नहीं है। और जब इंसान खुद को इन दो
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वाक्यों में कैद कर देता है तो पूरी
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दुनिया उसे रास्ता दिखाकर भी कुछ नहीं कर
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सकती। यह युवक मुझे मेरी ही सोच सिखा गया।
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मंदिर से लौटते समय मैंने महसूस किया कि
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यह कहानी सिर्फ उसकी नहीं। यह कहानी हम सब
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की है क्योंकि चाहे शरीर मजबूत हो या
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कमजोर हम सब कभी ना कभी अपने मन को कह
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देते हैं मैं सक्षम नहीं हूं मैं लायक
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नहीं हूं किस्मत मेरे साथ नहीं है और जब
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यह विचार भीतर बैठ जाते हैं तो इंसान जीवन
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का रास्ता देखते हुए भी उसे अपनाने की
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हिम्मत नहीं कर पाता लेकिन असली बदलाव तभी
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शुरू होता है जब इंसान कहना सीखता है मैं
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कोशिश करूंगा मैं सीख सकता हूं हूं। मैं
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आगे बढ़ सकता हूं। वह एक युवक मुझे यह
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सिखा गया कि जिंदगी शरीर की कमजोरी नहीं
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पूछती। जिंदगी पूछती है कि आपका मन चलता
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है या नहीं।
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सो इस कहानी का सार असली अपंगता पैरों की
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नहीं है। मन की हिम्मत की कमी है।
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डिपेंडेंसी आसान लगती है लेकिन धीरे-धीरे
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इंसान को खत्म कर देती है। जिंदगी की दिशा
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पैरों से नहीं मिलती। इरादों से मिलती है।
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छोटा काम भी अपनी मेहनत से कमाया हुआ भीख
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से ज्यादा इज्जत देता है। आप क्या कर सकते
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हैं यह आपका शरीर नहीं बताता। आपका
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माइंडसेट बताता है। और अंत में मैंने अपने
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मन में लिखा कमजोरी शरीर में नहीं सोच में
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बस जाए तो तबाही है। धन्यवाद।
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ॐ
#Health
#Self-Help & Motivational
