Autobiography of a Yogi – अध्याय 6 | गुरु की पहली परख – समर्पण का असली इम्तहान | Think Better Hindi
Nov 27, 2025
✨ Autobiography of a Yogi के अध्याय 6 में हम देखते हैं
योगानंद जी के जीवन का पहला बड़ा मोड़—
जब उनके गुरु श्री युक्तेश्वर गिरी
उन्हें पहली कड़ी आध्यात्मिक परख से गुज़ारते हैं।
यह अध्याय सिखाता है कि
गुरु डाँटते नहीं—तराशते हैं।
गुरु अस्वीकार नहीं करते—शिष्य को शक्तिशाली बनाते हैं।
📘 इस वीडियो में जानिए:
गुरुजी का पहला कठोर प्रश्न—“क्यों आए हो?”
योगानंद जी का टूटना, फिर उठना
गुरु का कठोर परीक्षण और उसमें छिपा दिव्य प्रेम
मन पर नियंत्रण की पहली बड़ी शिक्षा
और कैसे योगानंद जी परीक्षा पास कर सच्चे शिष्य बनते हैं
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जीवन में गुरु मिल जाना बड़ी बात है।
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लेकिन उससे भी बड़ी बात है गुरु द्वारा
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स्वीकार किया जाना। क्योंकि गुरु कभी भी
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अपने शिष्य को सीधे अपने हृदय में प्रवेश
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नहीं करने देते। वे पहले देखते हैं क्या
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यह आत्मा सच में तैयार है? क्या यह मनोबल
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इतना मजबूत है कि साधना के रास्ते की कठिन
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पर्वतमालाओं को पार कर सके। अध्याय छह वह
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अध्याय है जब योगानंद जी को पहली बार यह
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एहसास हुआ कि गुरु किसी मिठास भरी मुस्कान
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से नहीं बल्कि गण परीक्षा से शिष्य को
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तराशते हैं। और यह परीक्षा जो आज आप सुनने
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वाले हैं युवांद जी के लिए एक झटका भी थी,
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एक जागृति भी और एक नया जन्म भी।
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गुरु श्री युक्तश्वर गिरी से मिलने के बाद
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मुकुंदा के मन में जैसे एक नई दुनिया खुल
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गई थी। उनके हर विचार हर भाव हर इच्छा
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किसी एक दिशा में मुड़ गई थी। अपने गुरु
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की ओर। उस दिन की दिव्य अनुभूति अभी भी
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उनके मन के कोनों में चमक रही थी।
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उन्होंने महसूस किया गुरु कोई बाहरी
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व्यक्तित्व नहीं होते। वे भीतर की सुप्त
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चेतना को जागृत करने वाले दीपक होते हैं।
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हर सुबह जागते ही उनके भीतर एक ऊर्जा
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उठती। आज गुरु जी के पास जाना है। उनके
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कदम स्वयं आश्रम की ओर बढ़ जाते। कई बार
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वे सोचती गुरु जी ने मुझे स्वीकार किया है
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या नहीं। परंतु उनकी आत्मा कहती एक बार
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गुरु ने बुलाया तो फिर शिष्य की राह गुरु
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ही बनाते हैं। एक दिन वे सुबह-सुबह गुरु
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जी के आश्रम की ओर निकल पड़े। हवा हल्की
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थी। सूरज अब अभी आसमान में उदय हो ही रहा
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था। रास्ते में चलते हुए उनके मन में कई
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भाव उठते, समर्पण, प्रेम, उत्साह और हल्की
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सी बेचैनी भी। वे सोच रहे थे आज गुरुजी को
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क्या सिफा दूंगा? कौन सा कार्य सौंपेंगे?
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क्या वे आज कुछ विशेष शिक्षा देंगे? उनका
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हृदय धड़क रहा था। उन्हें महसूस हो रहा था
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कि आज कुछ महत्वपूर्ण होने वाला है। जब वे
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आश्रम पहुंचे तो देखा कि गुरु जी बाहर
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बैठे हैं। उनका चेहरा शांत था। जैसे ध्यान
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में डूबे हुए हो। आश्रम की शांति देखते ही
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मुकुंदा का मन अपने आप झुक गया। उन्होंने
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गुरु जी के चरणों में प्रणाम किया। परंतु
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आज गुरु जी की आंखें सामान्य दिनों जैसी
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शांत नहीं थी। उनकी दृष्टि तेज थी जैसे
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किसी गहरे परीक्षण की तैयारी हो। मुन्ना
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ने उनके पैरों को छुआ और मन ही मन सोचा आज
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की शिक्षा कुछ भिन्न होगी।
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अचानक गुरु जी ने ऊंची आवाज में कहा क्यों
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आए हो? मुंदा बिल्कुल स्तब्ध। उन्होंने
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हकलाते हुए कहा गुरुजी आपकी सेवा के लिए
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आया हूं। गुरु जी बोले सेवा किस बात की
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सेवा उनका स्वर कठोर था ना प्रेम की
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नरमाहट ना स्वागत की मुस्कान जैसे उनके
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भीतर कोई ज्वालामुखी उमड़ रहा हो मुकुंदा
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का दिल बैठ गया उन्हें लगा शायद आज गुरुजी
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उनसे नाराज है वो बोले गुरुजी यदि मैंने
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कोई गलती की हो तो कृपया क्षमा करें लेकिन
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गुरुजी ने फिर तीखी आवाज में कहा जाओ यहां
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मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं है। यह सुनते ही
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मुकुंदा के दिल पर बिजली गिर गई। उनकी
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आंखें भर आई जैसे उनके भीतर कुछ टूट गया
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हो। किसी दूसरी आत्मा की जगह शायद कोई और
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होता तो वह रोता हुआ लौट जाता। लेकिन
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योगानंद जी अलग थे। उनके भीतर गुरु के
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प्रति प्रेम किसी साधारण भावना से परे था।
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उन्होंने सोच लिया गुरुजी की कोई भी डांट
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मेरे समर्पण को कम नहीं कर सकती। वो वहीं
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खड़े रहे। आंखों में आंसू थे पर दिल में
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अटूट श्रद्धा। उन्होंने धीरे से कहा
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गुरुजी आप चाहे मुझे निकाल दें पर मैं
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नहीं जाऊंगा क्योंकि मैं आपका हूं और आपके
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बिना मेरा जीवन अधूरा है। गुरु जी ने उनकी
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ओर देखा। उनकी आंखों में आग और पानी दोनों
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थे। यह प्रेम और परीक्षा का संगम था। कुछ
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क्षणों के बाद गुरु जी के चेहरे पर हल्की
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सी मुस्कान उभरी। उन्होंने कहा अच्छा तुम
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समझ गए। मुकुंदा ने आंखें पोछी और चौंक कर
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गुरु जी को देखने लगे। गुरु जी बोले शिष्य
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वही होता है जिसे डांट से फर्क ना पड़े।
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जिसे अस्वीकार से चोट ना लगे। तुम परीक्षा
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में सफल हुए। यह सुनकर मुकुंदा के दिल में
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एक अद्भुत शांति उतर आई। उन्हें पहली बार
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समझ आया गुरु डांटते हैं तो शिष्य के भीतर
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का पतन निकालते हैं ताकि उसका असली तेज
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निकल सके। गुरु जी बोले मुकुंदा तुम्हारे
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भीतर उत्साह बहुत है पर स्थिरता कम है।
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साधना केवल प्रेम से नहीं अनुशासन से आगे
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बढ़ती है। फिर सख्त स्वर में कहा भावनाओं
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के सहारे आध्यात्मिक मार्ग पर नहीं चला
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जाता। मन को जीतना पड़ता है। यह शब्द
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योगानंद जी के जीवन की पहली गहरी शिक्षा
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थी। इन शब्दों ने उनके भीतर आत्म संयम की
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ज्वाला जला दी।
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फिर गुरु जी धीरे-धीरे पास आए। उन्होंने
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मुकुंदा के सिर पर हाथ रखा। जैसे ही उनका
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हाथ लगा, मुकुंदा ने महसूस किया कि
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अभी-अभी मेरी डांट किसी चोट की तरह नहीं
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बल्कि किसी दवा की तरह थी। आंसू अब भी बह
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रहे थे पर अब वे दुख के नहीं आत्मिक जागरण
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के आंसू थे। गुरु जी ने कहा मैं तुम्हें
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अपने जीवन से बहुत कार्य करवाना चाहता
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हूं। इसीलिए तुम्हें परख रहा हूं। मुकुंदा
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ने सिर झुका लिया। उनके भीतर की हर चीज
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गुरु के चरणों में समर्पित हो चुकी थी।
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उस दिन गुरुदेव ने मुकुंदा को कोई मंत्र
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नहीं दिया ना कोई अभ्यास ना कोई गढ़ ज्ञान
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लेकिन उस दिन योगानंद जी ने वह सीख ली जो
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वर्षों की साधना से भी नहीं मिलती। समर्पण
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ही शिष्यत्व का पहला चरण है। रात को घर
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लौटते हुए मुकुंदा बार-बार पीछे मुड़कर
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गुरु जी के आश्रम की ओर देखती। उन्हें
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महसूस हो रहा था आज उनका जन्म दोबारा हुआ
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है। इस भाग में योगानंद जी को गुरु जी की
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पहली कठोर परीक्षा मिलती है और वह पास हो
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जाते हैं। असल अध्याय अभी बाकी है। गुरु
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जी के अगले परीक्षण, अगली शिक्षा और पहली
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आध्यात्मिक साधना भाग दो में विस्तृत रूप
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से आएगी। हर महान गुरु अपने शिष्य को पहले
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तोड़ते हैं, फिर बनाते हैं। पहले उनके
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अहंकार को चूर करते हैं। फिर आत्मा को
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चमकाते हैं। और जो शिष्य डांट से नहीं
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टूटता वही आगे चलकर सबसे ऊंचे आध्यात्मिक
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शिखर तक पर पहुंचता है। अध्याय छह का
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दूसरा भाग ठीक इसी गहराई को दिखाता है।
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गुरु की कठोरता का मतलब कड़वाहट नहीं वह
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प्रेम का सबसे ऊंचा रूप होता है।
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जब मुकुंदा ने कहा गुरु जी मैं नहीं
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जाऊंगा मैं आपका हूं तो गुरु जी के चेहरे
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पर एक शांत गहरी मुस्कान फैल गई कुछ क्षण
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पहले तक उनका स्वर कठोर तपता हुआ और तीखा
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था लेकिन अब वह समुद्र जैसा शांत था गुरु
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जी ने धीमी आवाज में कहा अच्छा अब तुम समझ
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गए अब तुम्हारा पहला पाठ शुरू होता है यह
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सुनकर मुकुंदा के हृदय में एक तेज संपादन
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हुआ उन्हें लगा कि अब उनकी साधना का असली
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द्वार खुल चुका है।
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गुरु जी ने कहा मुकुंदा तुम्हारी सबसे
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बड़ी कमजोरी है भावना। मुकुंदा आश्चर्य से
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बोले गुरुजी भावना कमजोरी। मैंने सोचा
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भावना तो भगवान तक पहुंचाती है। गुरु जी
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ने जवाब दिया भावना पवित्र है। यदि उसे
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नियंत्रित किया जाए लेकिन यदि भावना पर मन
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का नियंत्रण ना हो तो वह साधक का सबसे
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बड़ा शत्रु बन जाती है। फिर गुरु जी ने
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अपनी उंगली उठाकर कहा भावना एक नदी है।
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यदि बहाल सही दिशा में है तो वह मोक्ष तक
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ले जाती है। यदि वह बेकाबू हो जाए तो साधक
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को डुबो देती है। मुकुंदा के मन में इन
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शब्दों का गहरा प्रभाव हुआ। उन्होंने
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महसूस किया कि उनकी भावनात्मक प्रवृति ही
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कई बार उनके मन में उतार-चढ़ाव पैदा करती
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है। गुरु जी ने आगे कहा मन जब तक स्थिर ना
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हो ध्यान सफलता नहीं देगा। उन्होंने अपना
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हाथ अपने सीने पर रखा और बोले साधना का
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पहला नियम है मन को शांत करना सीखो।
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मुकुंदा ने पूछा गुरु जी मन को कैसे शांत
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करूं? गुरु जी बोले मन को शांत करने का
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पहला तरीका उसकी बात मत सुनो। दूसरा तरीका
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खुद को उसकी बात सुनने से रोकना सीखो।
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तीसरा तरीका उसकी हर इच्छा पर ना कहना
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सीखो। यह सुनकर मुकुंदा खुद को रोक नहीं
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पाए। गुरु जी यह तो बहुत कठिन है। गुरु जी
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मुस्कुराए। कठिन ही तो साधना है। आसान तो
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दुनिया है। गुरु जी ने कहा अच्छा अब मैं
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तुम्हें एक कार्य देता हूं। मुकुंदा उत्सक
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होकर बोले जी गुरु जी। गुरुजी ने जमीन पर
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रखा एक छोटा सा मिट्टी का बर्तन उठाकर कहा
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इसे बाजार से पानी भरकर लाकर दो। मुकुंदा
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ने सोचा यह तो बहुत साधारण काम है। लेकिन
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गुरु जी की आंखों में कुछ अलग था। एक शांत
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पर गहरी चुनौती। मुकुंदा ने बर्तन लिया और
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चल पड़े। रास्ते में चलते हुए मुकुंदा के
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मन में कई विचार उठे। गुरु जी ने मुझे
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इतना आसान काम क्यों दिया? क्या यह भी
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परीक्षा है? क्या इसमें कोई रहस्य छिपा
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है? वे बर्तन लेकर चलते रहे। हवा तेज थी।
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बर्तन कल का था। पर उनके मन पर एक भारीपन
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था। पानी भरते समय बर्तन थोड़ा फिसल गया।
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एक बूंद उनके कपड़े पर गिर गई और उसी क्षण
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उन्हें गुरु जी के शब्द याद आए। मन को
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अनुशासन सिखाना है। उन्होंने खुद से कहा
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नहीं मैं जल्दबाजी नहीं करूंगा। जो काम
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दिया है वह पूर्णता से करूंगा। उन्होंने
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बर्तन को सावधानी से भरा और आश्रम की ओर
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लौट पड़े।
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जैसे ही वे आश्रम पहुंचे गुरु जी बाहर उन
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खड़े उन्हें देख रहे थे। उन्होंने पूछा
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पानी लाए। मुंदा ने नम्रता से कहा, "जी
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गुरु जी" गुरुजी ने बर्तन देखा और बोले,
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"अच्छा अब बताओ रास्ते में तुम्हारा मन
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कितनी बार डगमगाया?" मुुंदा चौके वे बोले
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गुरु जी आप कैसे जान गए?" गुरुजी बोले
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शिष्य का हर विचार गुरु के सामने खुली
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किताब होता है। तुम भर्तन नहीं भर रहे थे।
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तुम अपने मन को भर रहे थे। फिर गुरु जी ने
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गहरी आवाज में कहा योग का पहला पार्ट
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बाहरी काम छोटा या बड़ा नहीं होता छोटा
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काम मन की परीक्षा लेता है बड़ा काम आत्मा
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की मोहंदा की आंखों में नम्रता और समझ की
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चमक आ गई गुरु जी ने कहा अब दूसरा काम इस
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बर्तन को वहीं वापस रख आओ जहां से लाए थे
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इस बार मुकुंदा मुस्कुराया उन्हें पता था
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गुरु किसी भी काम से साधना करवाते हैं
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उन्होंने बर्तन उठा उठाया और दोबारा उसी
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मार्ग पर चले। इस बार उनके मन में शांति
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थी। कोई बेचैनी नहीं, कोई सवाल नहीं। वह
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महसूस कर रहे थे गुरु जी के हर आदेश में
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मेरी आत्मा का कल्याण छिपा है। बर्तन वापस
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रखने के बाद वे लौट कर गुरु जी के पास
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पहुंचे। गुरु जी मुस्कुराए और बोले आज
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तुमने दो काम किए। एक बाहर और एक भीतर। वो
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हुंदा ने पूछा भीतर का काम कौन सा? गुरु
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जी बोले तुमने अपने मन की अधीरता मारी। आज
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तुम्हारा मन पहले से शांत है। फिर गुरु जी
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ने उनका हाथ पकड़ा और कहा शिष्य वही है जो
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छोटे-छोटे कामों में बुद्धि मदा ढूंढ ले।
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यह शब्द योगानंद जी के भीतर आत्मा की घंटी
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की तरह गूंज उठे।
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शाम होते-होते मुकुंदा गुरु जी के चरणों
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में बैठ गए। गुरु जी शांत स्वर में बोले
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मुकुंदा तुम्हें मैंने आज इसलिए परखा
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क्योंकि आगे तुम्हें बहुत कठिन परीक्षाएं
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देनी होंगी। यदि आज तुम टूट जाते तो आगे
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नहीं बढ़ पाते। मुकुंदा की आंखें नम थी।
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उन्होंने कहा गुरुजी मैं आपका हूं। आप जो
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चाहे मुझसे कराएं। गुरु जी ने उनके सर पर
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हाथ रखा और जब और अब से मैं तुम्हें अपने
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हृदय में रखता हूं। बस इतना कहना था
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योगानंद जी भावनाओं में बह गए। उनकी आंखों
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में आंसू बहते रहे। यह आंशु आंसू कष्ट के
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नहीं समर्पण के थे। इस पूरे अध्याय का सार
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यह है गुरु के डांट सबसे बड़ी कृपा है और
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गुरु की परीक्षा सबसे बड़ा वरदान। योगानंद
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जी अब गुरु शिष्य संबंध के असली स्वरूप को
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समझ चुके थे। और आगे आने वाले अध्यायों
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में उनकी साधना आध्यात्मिक ऊंचाइयों की ओर
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बढ़ेगी। धन्यवाद।
