Autobiography of a Yogi – अध्याय 8 | घर और साधना का संघर्ष – आत्मा की पहली बड़ी परीक्षा |
Dec 5, 2025
✨ Autobiography of a Yogi के अध्याय 8 में,
योगानंद जी अपने जीवन के
सबसे कठिन मोड़ पर खड़े हैं—
एक तरफ़ परिवार का प्रेम और ज़िम्मेदारी,
और दूसरी तरफ़ गुरु का दिव्य बुलावा।
यह अध्याय बताता है कि—
साधना की पहली और सबसे बड़ी परीक्षा
घर के भीतर ही होती है।
📘 इस वीडियो में जानिए:
पिता का विरोध और भाई की सख्त शर्तें
गुरुजी की शिक्षा: “कर्तव्य से भागना धर्म नहीं”
ध्यान में गुरु की अदृश्य उपस्थिति
आत्मा की पुकार—वापस आश्रम जाने का निर्णय
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अध्यात्म का रास्ता हमेशा पहाड़ों और
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जंगलों से होकर नहीं गुजरता। कई बार यह
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रास्ता घर की चार दीवारी से गुजरता है और
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सच तो यह है साधना का पहला दुश्मन बाहर
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नहीं घर के भीतर ही खड़ा मिलता है। जिनके
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प्रेम पर हम हमेशा भरोसा करते हैं। उन्हें
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ही हमारे आध्यात्मिक उद्देश्य की समझ सबसे
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देर से आती है। युवानंद जी की आध्यात्मिक
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यात्रा की सबसे कठिन परीक्षा उन्हें वहीं
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देनी पड़ी अपने ही घर में।
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अध्याय सात में गुरु श्री युक्त गिरी से
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ऊर्जा और चेतना का अद्भुत अनुभव करने के
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बाद योगानंद जी के भीतर जैसे नया जन्म हुआ
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था। मन पहले जैसा चंचल नहीं रहा। ऊर्जा
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पहले जैसी बिखरी नहीं रही और जीवन पहले
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जैसा साधारण नहीं रहा। उनकी दृष्टि में एक
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चमक, सांसों में स्थिरता और हृदय में गुरु
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भक्ति और गहरी हो गई थी। अब उनका हर क्षण
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गुरु जी के चरणों की ओर खींचा चला जाता
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था।
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लेकिन कोलकाता में उनके पिता की आशंकाएं
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बढ़ रही थी। वे सोचती यह लड़का पढ़ाई
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छोड़कर कहीं साधु ना बन जाए। उनकी दृष्टि
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से योगानंद भी बच्चा थे और बच्चा जब अपने
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भविष्य से खेलता हुआ दिखाई दे तो
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माता-पिता के दिल में डर उठना स्वाभाविक
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है। वे चाहते थे कि योगानंद इंजीनियरिंग
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पढ़कर सफल और सुरक्षित जीवन जिए। जैसे
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उन्होंने अपने बड़े बेटों को आगे बढ़ाया।
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योगानंद की आध्यात्मिक डगर उन्हें खतरा लग
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रही थी। और खतरे के सामने माता-पिता का
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प्रेम अक्सर कठोर हो जाता है। एक दिन उनके
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बड़े भाई ने कड़ा संदेश भेजा। तुम तुरंत
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घर लौटो। पढ़ाई पर ध्यान दो। पिता बहुत
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चिंतित है। योगानंद ने महसूस किया। अब
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टकराव आने वाला है। गुरु जी के आश्रम में
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बिताए हर पल उनके लिए अमृत था। लेकिन घर
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वालों की चिंता उनके लिए कर्तव्य था।
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दोनों पुकारे गुरु का आह्वान और पिता का
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आदेश उनके हृदय को दो हिस्सों में खींच
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रहे थे।
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योगानंद ने गुरु जी से कहा गुरुजी पिता
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मुझे वापस बुला रहे हैं। वे मेरी पढ़ाई के
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बारे में चिंतित है। गुरु जी ने गंभीर
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स्वर में पूछा तो क्या तुम्हारा धर्म
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तुम्हें माता-पिता के प्रति कठोर बनाता
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है? योगानंद चुप हो गए। गुरु जी बोले यदि
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कोई शिष्य अपने परिवार के कर्तव्य से
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भागता है तो समझो वह अभी साधना के लायक
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नहीं बना जिसने घर में धैर्य नहीं सीखा वह
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ईश्वर के राह पर कैसे चलेगा यह शब्द
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योगानंद के हृदय में बैठ गए गुरु जी आगे
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बोले जाओ घर रहकर भी साधना हो सकती है यदि
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मन को तुम साथ लो योगानंद ने प्रणाम किया
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जैसे आप आदेश दें गुरुजी
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योगानंद घर की ओर चल पड़े। सामान वही
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रास्ता वही पर मन का बोझ पहले से भारी। हर
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कदम पर एक सवाल क्या यह सही है? क्या गुरु
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जी नाराज होंगे? क्या मैं वापस आ पाऊंगा?
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पर भीतर से एक आवाज गुरु के आदेश में ही
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ईश्वर का मार्ग है। यह विश्वास उनके कदमों
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को ऊंचा देता रहा। वापसी पर पिता खुश थे।
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बेटा वापस आया था। पर उनके मन में दबी हुई
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चिंता थी। यह लड़का फिर ना भाग जाए। बड़े
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भाई ने कहा तुम अब किसी आश्रम में नहीं
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जाओगे। समय की कद्र करो। भविष्य की सोचो।
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गुरु गुरु खेल से जीवन नहीं चलता। योगानंद
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शांत रहे। लेकिन भीतर एक ज्वाला थी। गुरु
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भक्ति खेल नहीं जीवन का लक्ष्य है। घर की
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दिनचर्या, पढ़ाई, काम, रिश्तेदार वही
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पुरानी दुनिया। पर अब योगानंद जी का मन हर
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पल गुरु जी को याद करता। जब उनके भाई
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पढ़ाई करने को कहते, उन्हें गुरु जी की
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शांति याद आती। जब पिता चिंता जताते,
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उन्हें गुरु जी की बुद्धि याद आती। जब वे
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अकेले होते, गुरु जी का चेहरा सामने आ
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जाता।
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रात का हर सन्नाटा गुरु जी की उपस्थिति
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सलग था। घर में रहते हुए योगानंद समझ गए
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साधना भागकर नहीं इच्छाओं को जीत कर आगे
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बढ़ती है। हर रात योगानंद ध्यान करते कमरे
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में कोई ना होता। पर उन्हें लगता जैसे
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गुरुजी साथ बैठे हो। उनकी सांसे धीमी
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होती। मन शांत होता और ऊर्जा बढ़ती महसूस
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होती। जैसे गुरु जी की चेतना दूर से
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उन्हें शक्ति दे रही हो। यही अनुभूति उनके
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अंदर विश्वास और मजबूत करती रही। परिवार
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का प्रेम योगानंद को रोकने की कोशिश करता।
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उनके भविष्य की रक्षा के लिए और गुरु का
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मार्ग योगानंद को खींचता। उनकी आत्मा की
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रक्षा के लिए दोनों से ही पर योगानंद का
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लक्ष्य आत्मा की मुक्ति था और आत्मा पिता
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की नौकरी से नहीं गुरु के ज्ञान से मुक्त
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होती है।
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साधना की सबसे कठिन परीक्षा घर के भीतर
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होती है। जो अपने परिवार के विरोध के
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बावजूद गुरु के मार्ग पर टिकता है। वही
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सच्चा साधक है। योगानंद की आध्यात्मिक
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यात्रा अपने संघर्षों के साथ और मजबूत
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होने वाली थी। कभी-कभी जिंदगी में वह वक्त
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भी आता है जब हमें दो दुनिया में से केवल
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एक को चुनना पड़ता है। एक तरफ वे लोग जो
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हमारे लिए सब कुछ है और दूसरी तरफ वह रहा
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जिसके लिए हमारी आत्मा तड़प रही है।
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अध्याय आठ का यह भाग साधक के पहले बड़े
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निर्णय की कहानी है। एक ऐसा निर्णय जो
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योगानंद जी ने परिवार के विरुद्ध परात्मा
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के पक्ष में लिया।
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कुछ दिनों तक योगानंद ने अपने आप को घर की
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दिनचर्या में डालने की कोशिश की। सुबह
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उठताना नियमित पढ़ाई। परिवार के काम सब
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कुछ सामान्य लग रहा था। पर पिता की नजरें
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हर पल उन पर टिकी थी। जैसे वे कह रही हो
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मुझे तुम पर भरोसा नहीं। बड़े भाई ने साफ
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शब्दों में कहा अब कोई आश्रमवाशरूम नहीं
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सीधा कॉलेज सीधा भविष्य। योगानंद शांत
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सुनते रहे पर भीतर कहीं एक आवाज लगातार
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उठती गुरु जी के पास जाना है। रात को सब
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के सो जाने पर योगानंद अपने कमरे में शांत
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बैठकर ध्यान करने लगे। बत्ती बंद खिड़की
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से आती चांदी और मन में गुरु की प्रकाशमय
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मूर्ति हर ध्यान में उन्हें लगता जैसे
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गुरु जी की ऊर्जा उन्हें धीरे-धीरे ऊपर
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उठा रही हो। उनकी सांसे धीमी, मन शांत और
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भीतर एक ही संकल्प। गुरुजी ही मेरा पथ है।
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दिन में पिता बार-बार कहते हैं पहले अपनी
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डिग्री पूरी करो। फिर जो करना है करो। योग
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अनंत सोचते क्या साधना डिग्री से छोटी है?
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क्या जीवन का उद्देश्य केवल नौकरी है? पर
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फिर गुरु जी की शिक्षा याद आती। परिवार के
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कर्तव्य से भागना धर्म नहीं।
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उनका मन कहता गुरु जी मेरे लिए इंतजार कर
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रहे हैं। उनकी बुद्धि कहती पिता ने भी
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मुझे जन्म दिया है। उनका हक है। यह संघर्ष
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शरीर का नहीं आत्मा का युद्ध था। एक क्षम
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बड़े भाई ने कठोर स्वर में कहा तुम्हारा
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यह गुरु गुरु पागलपन है। तुम्हें
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जिम्मेदारी सीखनी चाहिए। घर और पढ़ाई सबसे
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पहले। योगानंद ने शांत स्वर में कहा मैं
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साधना को पागलपन नहीं जीवन का सत्य मानता
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हूं। भाई हंस पड़े अगर तुम इस घर से निकले
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तो वापस मत आना। घर में सन्नाटा छा गया।
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यही शब्द आगे आने वाले विस्फोट की पहली
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दस्तक थे। उस रात योगानंद चुपचाप अपने
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कमरे में बैठे। आंखें बंद करते ही गुरुजी
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का चेहरा सामने देखा। उनकी शांत आंखें
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उन्हें बुला रही थी। उनकी आवाज युगानंद के
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अंदर गूंजी। मुकुंदा लौट आओ। बस यही क्षण
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नरनायक था। यह आवाज किसी इंसान की नहीं
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आत्मा की थी। योगानंद ने निर्णय ले लिया।
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सुबह होते ही मैं गुरु जी के पास पहुंच
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जाऊंगा। अगली सुबह योगानंद ने घर वालों से
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कहा मुझे अपने गुरु जी के पास वापस जाना
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है। पिता क्रोधित तुम जाओगे तो लौट कर मत
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आना। भाई गर्जित तुम परिवार की कदर नहीं
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करते। बहने रो पड़ी हमें मत छोड़कर जाओ।
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इन सबके बीच योगानंद शांत रहे। आंखों में
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ना आंसू ना शिकायत सिर्फ निश्चय। गुरु का
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मार्ग ही मेरा जीवन है। उन्होंने सिर
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झुकाकर कहा मैं आपका अपमान नहीं कर रहा पर
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मेरा जीवन गुरु के चरणों में है। और फिर
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दरवाजे की ओर ठोस कदम बढ़ा लिए। यह क्षण
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एक बालक का योगी बनने का था। सड़क पर
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निकलते हुए हर मोड़ पर घर की याद खींच दी।
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मां की पुरानी स्मृतियां, पिता की चिंता,
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परिवार का प्रेम पर गुरु का आह्वान हर
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खिंचाव से बड़ा था। आंसू नहीं थे पर भीतर
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गहरी आग थी। जो गुरु को छोड़ दे वह स्वयं
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को खो देता है।
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आश्रम की ओर चलते हुए युगानंद को एहसास
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हुआ जैसे हर कदम पर गुरु जी उनका हाथ थामे
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हैं। होठों पर मुस्कान आ गई। गुरु जी मैं
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आ रहा हूं। हवा में शांति थी, दिल में
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आनंद, पैरों में थकान नहीं यह रास्ता। अब
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कठिन नहीं लगा। यह घरेलू परीक्षाओं से
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मुक्ति का रास्ता था। जैसे ही योगानंद
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आश्रम पहुंचे, गुरु जी बाहर दरवाजे पर
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खड़े थे। शांत और दिव्य योगानंद उनके
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चेहरे चरणों में गिर पड़े। आंसू भय निकले।
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उन्होंने कहा गुरुजी मैं लौट आया। गुरु जी
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ने सिर पर हाथ रखा और धीमी आवाज में बोले
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मुझे पता था तुम आओगे यही तुम्हारी दिशा
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है। इस एक स्पर्श में सारे संघर्षों का
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उत्तर मिल गया। गुरु जी ने कहा तुमने अपने
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मन को जीता है। अब साधना में कोई तुम्हें
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रोक नहीं सकता। योगानंद का मन पूर्ण
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समर्पण में झुक गया। यह सिर्फ आश्रम में
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वापसी नहीं थी। यह आत्मा की स्थापना थी।
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अब वे केवल योगानंद नहीं गुरु के शिष्य
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योगानंद हो चुके थे। इस अध्याय का सार घर
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की परीक्षा पास कर ली तो साधना का हर
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पड़ाव आसान हो जाता है। जो साधक अपने
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कर्तव्य और आत्मा दोनों का सम्मान करता
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है। वही सच्चा योगी बनता है। योगानंद जी
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ने आज अपने जीवन का सबसे कठिन निर्णय सही
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मार्ग के पक्ष में लिया। अब उनका
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आध्यात्मिक सफर तेजी से ऊपर उठने वाला था।
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धन्यवाद।
